बलभद्रोत कछवाहा BALBHADROT KACHHWAHA

 बलभद्रोत कछवाहा राजपूतों का इतिहास 
HISTORY OF BALBHADROT KACHHWAHA RAJPUTS


आमेर महाराजा पृथ्वीराज जी के पुत्र बलभद्र जी के वंशज बलभद्रोत कछवाहा कहलाए। ये आमेर की "बारह कोटड़ी" के सरदारों में शामिल थे। इनका ताजिमी ठिकाना "अचरोल" (ACHROL) था। जयपुर रियासत पर उत्तर-पूर्व से होने वाले आक्रमणों में शत्रुओं को पहले अचरोल के वीरों से मुकाबला करना पड़ता था अचरोल के बलभद्रोत योद्धा जयपुर के लिए युद्धों में पराक्रम दिखलाते रहें। यहाँ के योद्धाओ ने समय समय पर मातृभूमि को अपने रक्त से सींचा है 


ACHROL FORT - HISTORY OF BALBHADROT RAJPUTS


  • अचरोल नरेश बलभद्र जी -

आमेर महाराजा पृथ्वीराज जी के पुत्र बलभद्र जी को भाई बंट के दौरान अचरोल जागीर में मिला था। बलभद्र जी अनेक युद्धों में शामिल हुए थे। उन्होंने हाजीखां पठान को भी परास्त किया था।  महाराजा पृथ्वीराज के समय में भोजराज पोता और राघर के कछवाहे बगावत कर रहे थे। दासा नरुका भी उनके साथ शामिल हो गया था। इस पर महाराजा पृथ्वीराज जी ने बलभद्र जी को सेना देकर भेजा। बलभद्र जी ने इन्हें भीषण युद्ध के बाद परास्त किया और दासा नरुका को पकड़कर ले आये। हाजीखां पठान ने जब आमेर पर चढ़ाई की तो महाराजा भारमल ने बलभद्रजी को सैन्य शक्ति सहित भेजा। टोड़ा बिलंदपुर में यह युद्ध हुआ। बलभद्र जी ने हाजी खां को परास्त करके इस युद्ध में विजय प्राप्त की। बलभद्र जी ई. सन् 1560 में रणभूमि में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। बलभद्र जी के उत्तराधिकारी उनके ज्येष्ठ पुत्र अचल सिंहजी हुए।

  • ठाकुर अचल सिंहजी -

अचरोल कस्बा जयपुर नगर से 18 मील उत्तर की ओर स्थित है। इस जागीर की स्थापना बलभद्रजी ने की थी एवं अचरोल कस्बे को ई. सन् 1564 में आमेर नरेश पृथ्वीराज के पौत्र एवं बलभद्र जी के पुत्र अचलदास जी ने बसाया था। अचलदास ने अपने नाम पर अचरोल कस्बा व उसके पास ही पहाड़ी पर अचलगढ़ का किला बनवाया था। उन्होंने अचलेश्वर महादेव का मन्दिर भी बनवाया था। उन्होंने आमेर राज्य की सेवा करते हुए कई युद्धों में भाग लिया था और अंत में ई. सन् 1589 में धतूरी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। शेखावतों से आमेर के उस समय में कई युद्ध हुए। उनमें बलभद्र के पुत्र अचलदास जी को भी भेजा गया था। ये कुंवर मानसिंह जी के साथ धतूरी के युद्ध में गये थे एवं इसी युद्ध में शत्रुओं का संहार करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। 

  • ठाकुर मोहन सिंहजी -

अचलदास जी के ज्येष्ठ पुत्र मोहनसिंह अचरोल की गद्दी पर विराजे। वे कुंवर मानसिंहजी की सेवा में रहे। वे कु. मानसिंह जी के साथ कई युद्धों में गये थे। मोहन सिंहजी "देवती बसवा के युद्ध" में ई. सन् 1614 में वीर गति को प्राप्त हो गये थे। पठानों के विरुद्ध "बिहार के युद्ध" में  कुंवर जगतसिंह जी आमेर की तरफ से लड़ते हुए मोहनसिंह के तीन पुत्र भी वीरगति को प्राप्त हुए थे।

  • ठाकुर कान्ह सिंहजी -

मोहनसिंह के बाद उनके पुत्र कान्हसिंह गद्दी पर बैठे। इन्होनें मिर्जा राजा जयसिंह के साथ रहकर काबुल, कंधार तथा दक्षिण के युद्धों में भाग लिया था। ये बड़े धार्मिक पुरुष थे। आगरा में एक बार गायों की रक्षा के लिये इन्होनें वहाँ के बहुत सारे कसाइयों को मार डाला था। जब मुगल बादशाह नाराज हुआ तो कई मुगल चौकियों को ध्वस्त करके वे उदयपुर के महाराणा के पास चले गये। वहाँ वह बड़े सम्मान से रहे। महाराजा जयसिंह ने बाद में इन्हें वापस बुला लिया और दक्षिण अभियानों में अपने साथ ले गये। ई. सन् 1647 में महाराजा जयसिंह ने इन्हें अपने राज्य के प्रबन्ध के लिये आमेर में नियुक्त किया जहाँ वह अपनी मृत्यु तक रहे। कानसिंह मिर्जा राजा जयसिंह जी के साथ काबुल में थे और वहीं ई. सन् 1652 में तुर्कों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।

  • ठाकुर तेज सिंहजी -

कान्हसिंह की मृत्यु हो जाने पर इनके पुत्र तेजसिंह गद्दी पर बैठे। तेजसिंह भी मिर्जा राजा के सरदारों में थे। इन्होनें शुजाशाह के विरुद्ध सियालकोट में युद्ध लड़ा था। तब यह महाराजा जयसिंह की सेना के हरावल दस्ते में थे। इस युद्ध में शुजाशाह पराजित होकर भाग गया। जयसिंह ने कान्ह सिंहजी की वीरता से प्रसन्न होकर पनवाड़ा गाँव जागीर में दिया था।

  • ठाकुर रतन सिंहजी -

तेजसिंह के बाद इनके पुत्र रत्नसिंह अचरोल की गद्दी पर बैठे। ये भी जयपुर के महाराजा विशनसिंह तथा सवाई जयसिंह के साथ कई युद्धों में शामिल हुए। रतनसिंह ने राजा विशनसिंह जी के साथ रहकर जाटो को खदेड़ा तथा महाराजा सवाई जयसिंह जी की ओर से बून्दी के युद्ध में शामिल हुए। इन्होनें अचरोल में रतन महल और रतनबाग बनवाये थे। इनकी मृत्यु ई.स 1718 में हो जाने पर इनके पुत्र भगतसिंह ने ई. सन् 1730 तक राज्य को सेवायें दी।  ई. सन् 1730 में इनका देहांत हुआ।


ACHROL PALACE
ACHROL PALACE


  • ठाकुर शिव सिंह - 

ठाकुर रतन सिंह के पश्चात इनका पुत्र शिवसिंह अचरोल की गद्दी पर बैठा।  महाराजा सवाई माधोसिंह जी ने जब हाड़ोती पर हमला किया तो उस दौरान 1762 में ठा. शिवसिंह अचरोल वीरगति को प्राप्त हुए थे।

  • ठाकुर राम सिंह -

शिव सिंहजी के पश्चात रामसिंह गद्दी पर बैठे।

  • ठाकुर कुशाल सिंह -

राम सिंहजी की 1785 ई. में मृत्यु हो जाने पर इनका पुत्र कुशलसिंह गद्दी पर विराजमान हुआ। कुशलसिंह दौसा के अतिरिक्त और कई युद्धों में गये। उनके पराक्रम के कारण उनके भाइयों को उधर की जागीरे मिली । कुशालसिंह मावंडा के युद्ध में गये थे जिसमें जयपुर ने भरतपुर को बुरी तरह परास्त किया था। दौसा के युद्ध में तेजसिंह वीरता दिखलाते हुये ई. सन् 1815 में वीरगति को प्राप्त हुए थे।

  • ठाकुर कायम सिंह -

कुशालसिंह के पुत्र न होने के कारण उनका भाई कायमसिंह गद्दी पर बैठा। पहले कायम सिंह को भड़गपुरा की जागीर मिली थी कुशाल सिंह के पुत्र न होने के कारण इन्हें अचरोल की गद्दी पर विराजमान किया गया और इन्होने भड़गपुरा की जागीर अपने छोटे पुत्र धीरज सिंह को दे दी।  कायम सिंह जाटों के विरुद्ध कई लड़ाइयों में शामिल हुए थे जिनमे जाटो को खदेड़ दिया गया था। हिण्डौन पर महताब खां ने कब्जा कर लिया था, कायम सिंह ने ई. सन् 1817 में मोहम्मद महताब खां को हिण्डौन में परास्त करके भगा दिया था।  इससे प्रसन्न होकर जयसिंह तृतीय ने कायम सिंह को हाथी व शिरोपाव देकर सम्मानित किया और जयपुर नगर का फौजदार नियुक्त किया। इनकी मृत्यु 1834 ई. में हुई।

  • ठाकुर रणजीत सिंह -

कायमसिंह के पश्चात् उनका पुत्र रणजीतसिंह गद्दी पर बैठा। ई.सन 1857 के विप्लव के वक्त इन्होने अपनी शरण में आये अंग्रेज स्त्रीयों व बच्चों के प्राण बचाये थे। यह बड़े धार्मिक पुरुष थे। इनके पास स्वामी दयानन्द काफी समय तक रहे थे व वहाँ धर्म चर्चा की थी। ई.सन् 1879 में इनकी मृत्यु हुई। 

  • ठाकुर लक्ष्मण सिंह -

रणजीत सिंह के पश्चात इनका पुत्र लक्ष्मणसिंह गद्दी पर बैठे। लेकिन वह युवावस्था में ही निस्संतान वीरगति को प्राप्त हुए अतः इनका छोटा भाई रघुनाथसिंह गद्दी पर बैठा।

  • ठाकुर रघुनाथ सिंह -

 इन्होनें जयपुर राज्य में समाचार विभाग, डाक विभाग आदि विभागों के अध्यक्ष पद पर काम किया था। ई. सन् 1884 में यह राजपुताना अपील न्यायालय के जज भी नियुक्त हुए।

  • ठाकुर केसरी सिंह -

रघुनाथसिंह की 1891 में मृत्यु हो जाने पर इनका पुत्र केसरीसिंह गद्दी पर बैठा। महाराजा सवाई माधो सिंह द्वारा इन्हें 1902 में जयपुर राज्य परिषद् का सदस्य नियुक्त किया गया था। इनकी ई. सन् 1922 में मृत्यु हो जाने पर इनका पुत्र हरीसिंह गद्दी पर बैठा।

  • राजाधिराज हरी सिंह जी  -

 ये भी राज्य परिषद् के सदस्य बनाये गये, जहाँ इन्होनें 2 वर्ष तक कार्य किया। ई. सन् 1922 में ये गृह विभाग के मंत्री (गृहमंत्री) नियुक्त किये गये। इनकी बहन का विवाह उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह के साथ हुआ तथा इनका स्वयं का विवाह चरखारी नरेश की बहन के साथ हुआ था। हरीसिंह को उदयपुर और जोधपुर राज्यों की ओर से सम्मान में राजाधिराज की पदवी प्राप्त हुई थी जिसे जयपुर द्वारा भी स्वीकार किया गया। हरिसिंह उदयपुर में भी मंत्री पद पर रहे, हरीसिंह जी का देहान्त हो जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र महेन्द्रसिंह अचरोल की गद्दी पर विराजमान हुए।

  • राजाधिराज महेंद्र सिंह जी 


जयपुर रियासत में 'अचरोल' बलभद्रोत राजपूतों का ताजिमी ठिकाना (TAZIMI THIKANA) था। अचरोल ठिकाना जयपुर राज्य को तन के 3,835 वार्षिक देता था, ३१००० का पट्टा , 62 घोड़ो, 1 हाथी एवं 1 पालकी की जागीर थी। ये अठमावा जागीर थी। इसके अलावा भड़गपुरा, दौलतपुरा , हमीरपुरा, पेमपुरा और करेड़ आदि बलभद्रोत राजपूतों के मुख्य ठिकाने रहे है। इनके १६ खासचौकी ठिकाने रहे है। 


  • बलभद्रोत कछवाहा राजपूतों का ताजिमी (प्रथम श्रेणी) ठिकाने "अचरोल का किला" -  

ACHROL FORT


  • महाराजा ईश देवजी से बलभद्रजी तक पीढी क्रम इस प्रकार है -

राव बलभद्र जी (बलभद्रोत खांप के पितृ पुरुष) महाराजा पृथ्वीराज जी महाराजा चन्द्र सेन जी महाराजा उद्धरण जीमहाराजा नरसिंह देव जी महाराजा उदयकरण जी महाराजा जुणसी देव जी महाराजा कुन्तलदेव जी महाराजा कील्हणदेव जी महाराजा राज देवजी महाराजा बीजल देवजी महाराजा मलैसी देव महाराजा पज्जवन देव महाराजा जान्हण देव महाराजा हणू देव महाराजा कांकल देव महाराजा दुल्हेराय जी महाराजा सोढ देव जी 👑महाराजा ईश्वरदास जी (ईशदेव जी)

MAHARAJA PRITHVIRAJ KACHHWAHA -
PART-1    PART-2    PART-3    PART-4    PART-5


BALBHADROT - ACHROL FORT

BALBHADROT RAJPUT HISTORY बलभद्रोत राजपूतों का इतिहास (अचरोल दुर्ग)
ACHROL FORT 

ACHROL FORT

ACHROL FORT
ACHROL FORT



सन्दर्भ -
१. कच्छवाहों का इतिहास - देवी सिंह मंडावा 
२. नाथावतों का इतिहास - हनुमान शर्मा 



                                                                                                                       

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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"