क्यों आमेर महल के पहरेदार बने थे राणा सांगा

  आमेर महाराजा पृथ्वीराज जी कछवाहा 


मेवाड़ में उत्तराधिकार संघर्ष - 

बात उस समय की है जब मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा रायमलजी विराजमान थे। महाराणा रायमल के तीनो पुत्र राजगद्दी पाने के इच्छुक थे इसी कारण भविष्य जानने के लिए तीनो कुँवर पृथ्वीराज, कुँवर जयमल और कुँवर संग्रामंसिंह (सांगा) ने अपनी अपनी जन्मपत्रियाँ एक ज्योतिषी को दिखायी। उन्हे देखकर ज्योतिषी ने कहा कि राजयोग तो कुँवर संग्राम का हैं अतः भावी महाराणा वे ही बनेंगे।

 ऐसा सुनते ही कुंवर पृथ्वीराज बिना देर किए कुंवर सांगा पर प्रहार करते हुए सांगा को तलवार की हूल मार देते है जिससे उनकी एक आँख की ज्योती चली जाती है। उस समय उनके काका सारंगदेव भी वही पर उपस्थित थे उन्होने पृथ्वीराज और जयमल को फटकार लगाते हुए कहा कि अपने पिता के राजसिंहासन पर विराजमान रहते हुए इस प्रकार के कृत्य करना शोभा नही देता।  इस प्रकार का बेर-भाव विनाश का कारण बन जाता है। इतना समझाने के बाद भी बेर भाव बढ़ता देख वे समाधान के लिए कहते है कि यदि तुम सत्य जानना चाहते हो कि राज्य किसको मिलेगा तो भीमल गांव की मंदिर की पुजारीन चारणी से पूछ लेते है। वे देवी का अवतार मानी जाती है।


इस पर तीनो भाई भीमल गाँव जाते है। पुजारीन ने भविष्यवाणी की कि "सांगा ही मेवाड़ का स्वामी बनेगा और शेष दोनो ही भाई अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे"।


यह सुनते ही पृथ्वीराज और जयमल के सब्र का बांध टूट जाता है और वे दोनों ही सांगा पर आक्रमण कर देते है। परंतु  पास मे ही खड़े सारंगदेव तुरन्त रूप से रक्षात्मक कार्यवाही करते हुए सांगा को बचा लेते है। इसी दौरान सांगा की रक्षा करते हुए सारंगदेव घायल हो जाते है लेकिन समय पर सांगा को घोड़े पर  सवार कर सेवत्री की तरफ रवाना कर देते है। जयमल भी सांगा का पीछा करता है।  सांगा सेवत्री गांव में शरण लेते है जहाँ राठौड़ बीदा जैतमालोत रुपनारायण के दर्शन हेतु आये हुए होते है। वे घायल सांगा को देख कर उनकी मरहम पट्टी करते है इतने में जयमल वहाँ पहुँच कर आक्रमण कर देते है। सांगा की रक्षा के लिए बीदा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो जाते है।


कुंवर संग्राम सिंह का अज्ञातवास  -

अपने ही भाइयो से बचने के लिए यहाँ से कुंवर संग्राम सिंह(सांगा) का अज्ञातवास प्रारम्भ होता है। अज्ञातवास के दौरान वे अनेक स्थानों पर जाते है। अंत में वे अजमेर के श्रीनगर में कर्मचन्द पँवार के यहाँ ठहरे थे।


कुंवर संग्राम सिंह का आमेर आगमन -

इसी अज्ञातवास के दौरान संग्रामसिंह (राणा सांगा) आमेर भी आये थे। वे अपनी पहचान छुपाते हुए आमेर के महाराजा पृथ्वीराज जी कछवाहा के यहाँ सेवक के रूप में लगभग 6 माह तक रहे थे। वह रात के समय महाराजा के महल की निगरानी करते और दिन में एकांतवास करते थे।


क्यों आमेर महल के पहरेदार बने थे राणा सांगा


इतिहासकार मुंशीदेवी प्रसादजी ने "आमेर के राजा" पृष्ठ-7 में लिखा है कि एक बार भादवे की अंधेरी रात थी। मूसलाधार मेह बरस रहा था। सांगाजी आमेर महल के पहरे पर थे। महाराजा महाराणी महल में सो रहे थे। आमेर के पहाड़ी नलों में पानी के गड़गड़ाहट का शोर हो रहा था और एक नाला महल के नीचे गिर रहा था जिसकी गड़गड़ाहट की ध्वनि आमेर महल में भी जा रही था। सांगाजी ने सोचा कि इस गड़गड़ाहट से राजा राणी की नींद उचट जाएगी। अतः उन्होंने स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए घास का एक बड़ा भारा नले के नीचे लगा दिया और अनेक प्रयत्न करके ध्वनि को रोक दिया। तब घोर शब्द (शोर) के सहसा बंद हो जाने पर महाराजा पृथ्वीराज जी ने दासी को बुलवा कर पूछा कि क्या वर्षा बंद हो गयी ? दासी ने देख कर निवेदन किया कि वर्षा ज्यों की त्यों बरस रही है लेकिन पहरेदार के प्रयत्न से शब्द बंद हुआ है।

राजदम्पत्ति ने विचार किया कि यह कोई मामूली सेवक नही हो सकता है। कोई बुद्धिमान मनुष्य है। प्रातःकाल पूरा पता लगाने से मालूम हुआ कि वो पहरेदार मेवाड़ के कुँवर संग्रामसिंहजी (सांगा) है। तब बड़े सम्मान से महल में बुलवा कर उनका राजोचित सत्कार किया गया। गौरतलब है कि महाराजा पृथ्वीराज जी की महाराणी दामोदर कंवर मेवाड़ की राजकुमारी थी जो महाराणा रायमल जी की पुत्री एवं सांगा की बड़ी बहन थी। कुछ दिन पश्चात् कुँवर सांगा के निवेदन पर उनको पूरे सम्मान के साथ आमेर से विदा किया गया।

कालांतर में कुंवर सांगा ही मेवाड़ राजगद्दी पर विराजमान हुए। जिनकी शौर्य कीर्ति अमर है जिन्होंने दिल्ली, गुजरात, मालवा के सुल्तानों को अनेक युध्दों में पराजित कर कई महीनों तक बंधक बना कर रखा था।


संदर्भ :- 

  • गोरीशंकर हीराचंद ओझा - उदयपुर राज का इतिहास १ पृ.स.641।
  • कविराज श्यामल दास - वीर विनोद भाग १ पृ.स. 339-440, पृ.स.447
  • रायमल रासो
  • नाथावतो का इतिहास - हनुमान शर्मा,
  • "आमेर के राजा"- मुंशीदेवी प्रसाद


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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"