बाँकावतो का इतिहास HISTORY OF BANKAWAT

बांकावत खांप का परिचय 

BANKAWAT , Thikana - LAWAN (LAWAAN)

ठिकाना - लवाण 


बांकावत (कछवाहा) राजपूतों का प्रमुख ठिकाना "लवाण" अपने इतिहास एवं वर्तमान दोनों के लिए ही प्रसिद्ध है। आमेर के महाराजा भारमल जी कछवाहा के पुत्र बांकेराजा भगवान दासजी के वंशज "बांकावत" कछवाहा कहलाये। 

बांकेराजा भगवान दासजी कछवाहा का परिचय 
  • पिता - आमेर के महाराजा श्री भारमल जी कछवाहा
  • माता - रानी बदना कंवर (मैनावती कंवर)
  • भ्राता - महाराजा भगवंतदास जी कछवाहा (आमेर)
  • पुत्र -
  1. मोहनदास जी बांकावत 
  2. अखेराम जी बांकावत 
  3. हरिराम जी बांकावत 
  4. अरजनराम जी बांकावत 
  • जन्म - चैत्र सुदी नवमी(रामनवमी) वि.स.1587
  • पदवी - राजा
  • पाटवी ठिकाना  - लवाण 
  • कंठीधारी, अन्नय हरिभक्त, अनेक मंदिरों के निर्माता व मथुरा के हाकिम भी थे।
  • व्यक्तित्व - अत्यंत सरल, हठी स्वभाव, अन्नय हरिभक्त, निर्भीक व बाँके व्यक्तित्व के धनी
  • देहावसान - माघ सुदी द्वादशी वि.स. 1692
  • जीवनकाल -105 वर्ष
जब नाहन के कबीलाई शासक के अत्याचारों से वहां की जनता त्रस्त थी तब नाहन की जनता के आग्रह पर आमेर महाराजा ने सामोद नरेश राव गोपालजी कछवाहा को नाहन पर आक्रमण हेतु भेजा। गोपालजी ने नाहन पर आक्रमण कर उसे तबाह कर दिया था और वहां सुशासन के साथ 'लवाण' कस्बे की स्थापना की। फिर लवाण को आमेर रियासत का हिस्सा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

लवाण ठिकाने की भौगोलिक स्थिति 
जयपुर से करीब 45 किलोमीटर व दौसा से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित लवाण कस्बा वर्तमान में कई कारणों से प्रसिद्ध है। जयपुर-आगरा हाईवे से बस्सी अथवा बाँसखो होते हुए व दौसा से लालसोट सवाई-माधोपुर रूट से लवाण पहुँचा जा सकता हैं।

कछवाहा वंश की बांकावत शाखा को लवाण ठिकाने की जागीर
आमेर के यशस्वी महाराजा पृथ्वीराज जी के पौत्र एवं महाराजा भारमल जी के पुत्र भगवानदास जी को लवाण की जागीर प्रदान की गयी थी।  महाराजा भगवन्तदास और राजा भगवानदास दोनों सहोदर थे, दोनों का ही जन्म महाराजा भारमल की महारानी बदना कंवर की कोख से हुआ था। भगवानदास को “राजा” की उपाधि प्राप्त थी। भगवानदास बहुत ही वीर, धार्मिक एवं हठीले व्यक्तित्व के धनी थे। भगवानदास ऐसे राजा थे, जिनसे अकबर को भी हमेशा डर सताता रहा, उन्होंने कभी अकबर से सीधे मुहं बात नही की। राजा भगवानदास की वीरता, हठधर्मिता एवं बांकेपन के स्वभाव के कारण अकबर उन्हें “बांकेराजा” कहकर संबोधित करने लगा था। इस वजह से उनके वंशज बाँकावत कहलाते है। हठीले स्वभाव के कारण सभी मुगल अधिकारी इनसे द्वेष रखते थे लेकिन बांके राजा तो अपने हठ से कभी पीछे नही हटे। 

बांकावतो के मुख्य ठिकाने 
लवाण, तुंगा, तुंगी, केलाई, गुढ़ा सम्पतपुरा, मोहम्मदपुरा, भयपुर, सवाईपुरा, गडलाई, भोजपुरा, लाभास, लालगढ़ आदि के अतिरिक्त वर्तमान भरतपुर जिले में भी बाँकावत कछवाहों के प्रमुख ताजीमी एवं खासचौकी ठिकाने मौजूद है। 

बांकेराजा भगवान दासजी के धार्मिक कार्य 

बांके राजा भगवानदास वीर होने के साथ साथ महान हरिभक्त भी थे। ठाकुर हरिदेव जी इनके आराध्य थे, गोवर्धन स्थित मानसी गंगा के तट पर स्थित हरिदेवजी का प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण बाँके राजा भगवानदास जी ने ही करवाया था एवं मन्दिर में अपने आराध्य हरिदेव जी के स्वरूप को विराजमान करवाया था। आपका समय हरिभक्ति में अधिक व्यतीत होता था। दिल्ली व जयपुर में आपकी स्मृति में भगवानदास रोड का निर्माण किया गया था। पुराने जयपुर में लवाण दरवाजा स्थित है, जो वर्तमान में मच्छी दरवाजे के नाम से जाना जाता है। लवाण दरवाजे का उल्लेख 'नाथावतो के इतिहास' में इतिहासकार श्री हनुमान शर्मा जी ने किया है। सनातन धर्म के प्रति भगवान दासजी में अत्यधिक प्रेम था वे माला, तिलक, कंठी , जनेऊ आदि प्रतीकों को धारण करके ही रहते थे। संतो ने उन्हें 'भजन भाव आरूढ़' की उपाधि से सम्मानित किया है आप मथुरा के हाकिम भी रहे उस समय जो व्यक्ति कण्ठी , तिलक , माला, कलावा आदि प्रतीक धारण करके आते आप उनका कर (टैक्स) माफ़ कर दिया करते थे, हिन्दू व्यापारियों की चुंगी माफ़ कर देते थे। इस लालच में मुस्लिम भी तिलक, माला पहन कर आने लग गये और उनकी भी चुंगी माफ़ कर दी जाती यह बात बादशाह जहाँगीर को पता चली तब उसने कंठी , तिलक , जनेऊ आदि प्रतीकों को पहनने पर पाबंदी लगा दी थी और ये प्रतीक धारण करने वालो को बंधक बनाने का आदेश दे दिया। ये सुनकर राजा भगवान दासजी स्वयं सभी प्रतीक धारण करके बादशाह के पास गये तो बादशाह ने अपने आदेश का हवाला देकर प्रतीक उतारने के लिए कहा लेकिन हठी भगवान दास ने तलवार खींच ली और धर्म की रक्षार्थ युद्ध के लिए तैयार हो गये कछवाहा राजपूतों से सन्धि तोड़ना मुगलों के लिए आत्मघाती कदम था और भगवान दास जी का विरोध का मतलब था कि आमेर का विरोध। बस इसी डर से बादशाह को झुकना पड़ा और भगवान दासजी की सभी शर्तो को स्वीकार करना पड़ा। भगवान दासजी ने अनेक धार्मिक करों से जनता को मुक्त कर दिया। बन्धको को आजाद करवाया भगवान दास जी से प्रभावित होकर रसखान भी सनातन प्रतीकों को धारण करने लग गये थे


लवाण के तीन राजकुमार जिन्होंने मुगल दरबार में मचाया था भीषण रक्तपात  
जहांगीर के समय मुगल दरबार में अपने सम्मान में थोड़ी सी कमी को देख आक्रोशित हुए लवाण के तीन राजकुमारों (कुंवर विजय , कुंवर अभय , कुंवर श्याम ) ने मुगलों से बगावत कर दी थी। और तीनों ही राजकुमारों ने मेवाड़ महाराणा के पास जाने का फैसला कर लिया था इस बात का मुगल बादशाह को पता लग जाता है और तीनो राजकुमारों को बंदी बनाने का फरमान जारी कर दिया जाता है  बगावत पर उतरे तीनो राजकुमारों ने मुगलों की सैन्य चोकियो पर आक्रमण कर उन्हें तबाह कर दिया था खुले आम बिना सैन्य शक्ति के विरोध करने वाले वीर रणबांकुरो ने मुगलों के नाक में दम कर दिया था। जब मुगल सैनिक भुजबल से उन्हें पकड़ने में नाकाम रहे तब पूर्व नियोजित षड़यंत्र के तहत कपट वश मुगल दरबार में बुलवा लिया गया और उन्हें बेड़ीयों में जकड़ने की कोशिश की गयी लेकिन मतवाले रणबांकुरे तो किसी के नियंत्रण में आने वाले थे नहीं, स्वाभिमानी राजकुमारों को जीवित बंदी बनाना मुगलो के वश में नही था। तीनों राजकुमारो ने मुगल दरबार में भीषण रक्तपात मचाया और मुगल सैनिको की लाशें बिछा कर युद्धरत रहते हुए ही वीरगति को प्राप्त हुए।
 
किंवदंती है कि लवाण के एक राजा ने डाकू उन्मूलन के लिए एक डाकू का कटा शीश गढ के द्वार पर लटकाया था इस कार्य से उन्होंने जनता को डाकुओ के भय से मुक्ति दिला दी थी और साथ ही साथ जनता में अपने राजा के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास भी बढ़ गया था 

लवाण की राजकुमारी ब्रजकुंवरी 
लवाण की राजकुमारी ब्रजकुँवरी महान विदुषी महिला एवं ब्रजभाषा की कवयित्री थी, 'ब्रजदासी' के नाम से विख्यात इस राजकुमारी ने श्रीमद् भागवत का 'ब्रजदासी-भागवत्' के नाम से ब्रज भाषा में अनुवाद किया था। ब्रजकुँवरी बाँकावती का विवाह किशनगढ़ रियासत के महाराजा से हुआ था।

लवाण का विशाल दुर्ग 
लवाण का गढ़ अपने समय के विशाल दुर्गो में से एक था। अपनी अनूठी स्थापत्य शैली के लिए विख्यात इस गढ़ का मुख्यद्वार बहुत ही ऊंचा है, परकोटा बहुत ही मजबूत, ऊंचा एवं चौड़ा है, गढ़ में प्रवेश करने के पश्चात हर एक दरवाजे के बाद एक बड़ा चौक बना हुआ है , गढ़ में विशाल कचहरी एवं लेखा जोखा की ईमारत बनी हुई हैं।  गढ़ में दिवान-ए-खास एवं जनानी ड्योढ़ी आकर्षण के केंद्र है इनमें कलात्मक रंगीन कारीगरी की हुई है।

Bankawat (kachhwaha) rajput ka thikana - 'lawan' (lawaan) jaipur
केसरी : THE GLORIOUS HISTORY
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लवाण किले में मन्दिर 

किले के दूसरे दरवाजे के भीतर प्रवेश करने पर गोविंद देव जी का मंदिर एवं विशाल चौक बना हुआ है गढ़ में प्राचीन भौमिया जी महाराज का मंदिर है। राजा जब भी युद्ध करने जाते थे, तब भौमिया जी महाराज को शीश नवाकर जाते थे। गढ़ के मुख्य द्वार के बाहर हनुमानजी का मंदिर बना हुआ है। गढ़ के चारों तरफ विशाल पाल का निर्माण किया हुआ है।

लवाण कस्बे में एक ऐतिहासिक प्राचीन कुआं है जो कंटीली झाड़ियों के बीच छिपा हुआ है यह आश्चर्यजनक धरोहर है। इसे जलदुर्ग भी कहा जाता हैं इस जलदुर्ग में प्रवेश हेतु एक संकरा एवं घुमावदार मार्ग बना हुआ है। जिसमे एक बार में केवल एक ही व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। इसके अंदर छोटे-बड़े कई कक्ष बने हुए हैं जिनमे प्रकाश के प्रवेश का उपयुक्त प्रबन्ध किया हुआ है। इसके चारो ओर एक मजबूत सुरक्षा कवच भी बनाया गया हैं। 

लवाण के बाँकावत राजपूतों का इतिहास वीर गाथाओं से भरा हुआ है बाँकावत राजाओ द्वारा निर्मित अनेक स्मारक तथा शिलालेख यहाँ विद्यमान है जो लवाण के गौरवशाली इतिहास का बखान करते है। यहाँ विशाल पाषाण स्तम्भो वाला एक भव्य स्मारक है लवाण के तालाब के पास एक चबूतरे पर एक विशाल प्रस्तर खंड पर एक शिलालेख लिखा हुआ है जिसके ऊपरी भाग में गणेश जी की आकृति बनी हुई हैं इस लेख में तालाब में होने वाली सिंगाड़े की खेती का विवरण तथा तालाब की मरम्मत के सम्बंध में आदेश खुदा हुआ है। 

वर्तमान स्थिति 
विख्यात लोकतीर्थ ‘नई का नाथ’ लवाण के पास ही स्थित है। लवाण का बाजार संकरा एवँ काफी बड़ा है लवाण खादी, निवार, दरियों तथा चमड़े के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध है। लवाण भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त जूट क्लस्टर घोषित है। लवाण में प्रसिद्ध बावड़ीयाँ, मंदिर, राजपरिवार की छतरियाँ भी स्थित हैं। लवाण के पेड़े (मिठाई) भी प्रसिद्ध है। लवाण वर्तमान में तहसील व पंचायत समिति है एवं पर्यटन विकास की असीम सम्भावनाएँ समेटे हुए है।
 
      

                                                                                                                            

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1 टिप्पणियाँ
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  1. बांकावतो के मुख्य ठिकानों में गुढ़ा सम्पतपुरा और मोहम्मदपुरा भी है जो कि भयपुर और सवाईपुरा से पूर्व के जागीर ठिकाने रहे थे। भयपुर और सवाईपुरा कालांतर में गुढ़ा सम्पत पुरा से ही जाकर बसे हैं। कृपया अपडेट करें।

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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"