क्षत्रिय राजयोगियों की तपोस्थली - लक्ष्मणपुरा Penance Place of Kshatriya Rajyogis – Lakshmanpura

 राजऋषि योगीराज ठा. सा. गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा   
Rahrishi Yogiraj Thakur sa. Guman Singh ji Lakshmanpura 


मेवाड़ के महाराणा लाखा के पुत्र अज्जा जी के वंशज "सारंगदेवोत" कहलाए। इस वंश में रावत सारंगदेव, जोगा, नरबद, नेत सिंह, भाण सिंह और महारावत महासिंह जी जैसे पराक्रमी , शूरवीर और स्वामिभक्त योद्धा हुए,  योगीराज ठा. गुमान सिंह जी जैसे संत ने भी इसी वंश में जन्म लिया। मेवाड़ के प्रमुख संतों में आपका नाम स्मरण किया जाता है। आपके ही शिष्य करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी भी प्रसिद्ध संत हुए।


जीवन परिचय Life Introduction-

योगीराज ठा. गुमानसिंह जी का जन्म सिसोदिया वंश की सारंगदेवोत शाखा में वि.स. १८९७, चैत्र कृष्ण द्वादशी को उदयपुर के निकट मेवाड़ के द्वितीय श्रेणी ठिकाने बाठरड़ा में हुआ था। आपके पिता बाठरड़ा रावत मोहब्बत सिंह के पुत्र कुं. कल्याण सिंह जी व माता फूल कुंवर थी। आपके दो बड़े भाई दलेलसिंह जी, झुंझारसिंहजी तथा दो बहने भी थीं। कुं.कल्याण सिंह जी का कुंवरपदे स्वर्गवास होने के कारण इन पांचो सन्तानों का लालन-पालन इनके दादा बाठरडा रावत मोहब्बत सिंह जी की देखरेख में हुआ। रावत मोहब्बत सिंह जी के स्वर्गवास के पश्चात उनके ज्येष्ठ पौत्र दलेल सिंह जी बाठरड़ा के रावत पद पर आसीन हुए तथा परम्परानुसार दोनों छोटे भाईयों झुंझार सिंह जी व गुमान सिंह जी को क्रमशः पिण्डोलिया व लक्ष्मणपुरा गांव की जागीर प्राप्त हुई।  लेकिन दोनों भाइयों में आपसी स्नेह के फलस्वरूप  पिण्डोलिया और लक्ष्मणपुरा गाँवों में दोनों भाइयो ने जायदाद का हिस्सा रखा और दोनों भाई लक्ष्मणपुरा में ही एक साथ निवास करने लगे। 


राजयोगी ठा.गुमान सिंह जी और ठा.झुझार सिंह जी (बड़े भाई)
राजयोगी ठा.गुमान सिंह जी और ठा.झुझार सिंह जी (बड़े भाई)


शिक्षा Education :- 

आपके द्वारा संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों का गहन अध्ययन किया गया था। काव्यशास्त्र के विषयक ज्ञान के साथ ही योगशास्त्र तथा ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान में भी रुचि रही। आपकी रचनाओं में संस्कृत, हिन्दी और मेवाड़ी बोली का प्रयोग हुआ है। आपके द्वारा गद्य और पद्य दोनों में रचनायें की गई ।


विवाह Marriage :- 

योगीराज ठा.गुमान सिंह जी का विवाह 23 वर्ष की आयु में वर्तमान चित्तौड़गढ़ जिले के रकमपुरा ठिकाने के चतर कंवर चौहान के साथ हुआ।


पुत्र :-

आपके तीन पुत्र हुए - 

  1. धीरत सिंह 
  2. गोविंद सिंह 
  3. मनोहर सिंह
 बड़े भाई ठा.झुझार सिंह के निसंतान होने पर कुं.धीरत सिंह उनके दत्तक उत्तराधिकारी हुए।


योगीराज ठा.गुमानसिंहजी अनुज थे। अतः उन्होंने श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी के नाम पर गांव का नाम लक्ष्मणपुरा रखा जबकि इससे पूर्व इस गांव का नाम "दाज्या"  था। निजनिवास के लिए हवेली बनवाई व हवेली के मुख्य द्वार के भीतरी मेहराब पर पाषाण में निजकृत यह दोहा खुदवाकर लगवा दिया। 

कर पुरषार्थ प्रथम ही, पुनि प्रारब्ध ही साथ। 

धर्म न छोड़े मोर सुत, अंत समय करे याद ॥


लक्ष्मणपुरा हवेली पर लिखा वाक्य
लक्ष्मणपुरा हवेली पर लिखा वाक्य


हवेली के सामने ही दर्शनार्थ श्री चारभुजा नाथ जी का मंदिर बनवाया उसमे भगवान चतर्भुज जी के श्रीविग्रह के साथ लक्ष्मण जी की मूर्ति की भी प्रतिष्ठा की। ठाकुर जी के श्री विग्रह के श्रृंगार के लिए आवश्यक आभूषण कानोड़ ठिकाने की और से भेट किये गए।


श्री चारभुजा नाथ जी का मन्दिर लक्ष्मणपुरा
श्री चारभुजा नाथ जी का मन्दिर, लक्ष्मणपुरा



प्रवास प्रंसग तथा तीर्थाटन Pilgrimage:- 

आपने अपने बड़े भाई बाठरडा रावत दलेल सिंह के साथ चारों धाम की यात्रा सम्पन्न की, काशी प्रवास के समय वहां  के विशुद्धानन्द जी तथा भास्करानंद जी के सानिध्य में आध्यात्मिक साधना सम्पन्न हुई तथा ओंकारेश्वर तीर्थ में नर्मदा के तट पर सिद्ध योगी कमल भारती जी को गुरु मानकर योग-साधना और आत्मज्ञान प्राप्त किया। इसी समय अन्य धार्मिक स्थलों की यात्राएं भी सम्पन्न हुई।


स्वभाव :- 

ठा.गुमान सिंह जी क्षत्रिय थे किन्तु स्वभाव से वे संत पुरुष की तरह सरल और निरभिमानी रहे। वह अत्यंत उदार और परोपकारी प्रकृति के थे। वे ऊंच- नीच के भेदभाव तथा वेद और कुरान में अन्तर नहीं मानते थे। वह संकीर्ण विचारों से बहुत ऊपर थे। मानव मात्र को एक मानते हुए साध्य और उपास्य को एक ही माना है। 

उन्होंने लिखा है:- 

" वो ही राम रहीम है,वो ही है अरिहंत।

वो ही वेद कुरान कह, अलख बतावे संत।।


योगीराज ठा.सा .गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा
योगीराज ठा.सा .गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा 


तत्कालीन देवल्या ( प्रतापगढ़) के महारावत उदयसिंह जी ने आपके शौर्य सदाचार तथा काव्य कौशल से प्रभावित होकर आपको अपने पास बुलाकर जागीरे बक्शी व बहुत ही मान-सम्मान पूर्वक रखा। इससे पूर्व डूंगरपुर नरेश ने भी आपको वहां जागीर देनी चाही थी, किन्तु आपका वहां मन नहीं लगा अतः आपने डूंगरपुर रियासत से जागीर लेना पसंद नहीं किया और आप वि.स. १९४० में प्रतापगढ़ पधार गए। महारावत उदयसिंह जी को ज्यो ही अपनी प्रजा में उपद्रवियों का समाचार मिलता तो गुमानसिंह जी तुरंत सब काम छोड़कर प्रजा की रक्षार्थ शत्रुओं से युद्ध करने चल पड़ते थे। गुमान सिंह जी अधिकतर महारावत साहब के साथ रहते और गुमान सिंह जी की वीर-क्रीड़ा व् काव्य-कौशल से प्रसन्न होकर महारावत साहब ने वि.स. १९४२ में तत्कालीन प्रतापगढ़ राज्य के मगरा जिले के गांव रामपुरिया व धारिया खेड़ी जागीर में प्रदान किये। उक्त दोनों गांव पहाड़ियों में होने से पर्याप्त आय न होने के कारण वि.स. १९४५ में मालवा-मंदसौर के समीप धनेसरी गांव भी जागीर में प्रदान किया | महारावत उदय सिंह जी के स्वर्गवास पश्चात उनके पुत्र महारावत रघुनाथ सिंह जी ने भी गुमान सिंह जी की काव्य प्रतिभा व वीरता से प्रभावित होकर वि.स. १९५१ (ई. सन १८९४) में देवलिया (प्रतापगढ़) में भूमि सहित मन्ना भट्ट की बावड़ी और रहने के लिए देवलिया (प्रतापगढ़) में हवेली प्रदान की तथा स्वर्ण का पाद-भूषण पहनने की अतिरिक्त मैदपाटीय क्षत्रिय कुलोचित ताजीम की प्रतिष्ठा (अर्थात पाँव में सोना पहने का क्षत्रियोचित सम्मान ) प्रदान किया। आप वहां वि.स. १९५५ तक रहे उसके पश्च्यात वानप्रस्थ ग्रहण कर योग साधना के लिए लक्ष्मणपुरा में ही अपने निवास के समीप एक साधना-कुटीर बनवाई जो मिट्टी की दीवारों से निर्मित थी और मानव देह की नो द्धार की तुलना में उसमे भी नो द्धार रखे गए थे। कबीरदास जी ने सच ही लिखा है  :-

नव द्धारे का पींजरा, ता में पंछी पौन।

 रहिबे को अचरज महा, गए अचंभा कौन ॥

इस साधना-कुटीर का एक अनोखा सा नाम "राम झरोखा" रखा गया। अब ठा. गुमान सिंह जी अपने गृहस्थ जीवन की व्यस्त घडियों में से पर्याप्त समय बचाकर योग-साधना में संलग्न हो गये। यहां वर्षो तक आपकी साधना अबाध और निर्विघ्न रूप से चलती रही। गृहस्थ की गाड़ी और परमार्थ का पुण्य-रथ दोनों को युगपद चलाना इतना आसान नहीं है, कितनी कठिनाइया व मुसीबते आती है।



आप योगक्षेम योग-योगेश्वर स्वयं श्री कृष्ण निर्वाहन करने वाले थे। आपके इस निश्चय और निश्चिन्तता का प्रमाण यह दोहा हे :-

गुमनो घोड़ो राम को, राम ही हाथ लगाम । 

बांधे छोड़े राम ही, खान-पान दे राम ॥


ठा गुमानसिंह जी को आत्मसाक्षात्कार शायद गृहस्थ जीवन में रहते ही हो गया था। जैसा कि ऊपर लिखा गया है " वि.स. १९५५ तक आप प्रतापगढ़ बिराजे व उसके बाद आप लक्षमणपुरा पधारकर साधना स्थली राम-झरोखा का निर्माण कर उसमे बिराजने लगे व वानप्रस्थ ग्रहण किया, लेकिन इससे पूर्व वि.स. १९५१ में आपके द्वारा रचित ग्रन्थ "अद्वेत बावनी" से स्पष्ठ प्रतीत होता है कि इस रचना तक आते-आते आप अपने जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त कर चुके थे। इस रचना का प्रत्येक छंद उस सुखानुभूति से भरा हुआ है जिसका अनुभव किसी साधक महात्मा को ब्रम्हानन्द पाकर प्राप्त होता है। "ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है" यह अनुभव आपको हो चूका था। वे अपने अनुभव को बतलाते है कि सोचने वाला भी वही है, सुनने वाला भी वही है, देखने वाला भी वही है, वह स्वयं ब्रह्म है। उनका यह अनुभव उनके इस छंद में स्पष्ट है  :-

अहं ब्रम्ह अस्मि अडग यामे द्वैत न आन आद अंत मध एक रास गणवे सही गुमान।

 गुमानो गणे यो एक सच क्यों, संख तक जायने संखवत होय क्यों  

सुणे वो गुणे वो लखे सो एक है, अहं ब्रम्ह अस्मि कहै सो नेक है।


आपका देहावसान फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं. 1971 में लक्ष्मणपुरा में 74 वर्ष की आयु में हुआ, लक्ष्मणपुरा गांव के पूर्व दिशा की तरफ उदयपुर से बाठरड़ा सड़क के किनारे स्थित वह स्थान जहां योगिवर्य ठाकुर साहब गुमान सिंह जी का अंतिम संस्कार हुआ, उस स्थान पर अभी कुछ वर्षों पूर्व ही ई.स. 2007 में आपकी जेष्ठ प्रपौत्र वधु व लक्ष्मणपुरा ठिकाने की माजी साहिबा कमल कुँवर जी ( माँ लक्ष्मणपुरा) ने एक समाधी बनवाई जो उनके श्रद्धा भाव का प्रतीक है। माजी साहिबा स्वयं भी भक्ति, भजन में तल्लीन रहते हुए भक्ति के उच्च सोपान पर पहुँच कर संत शिरोमणि माँ लक्ष्मणपुरा के नाम से जग में प्रसिद्ध हुई है। आपके बारे में किसी ने ठीक ही लिखा है : 

कमल कुंवर की साधना, है वो प्रेमाधीन। राजयोग से प्रसन्नता, संत सेवा में लीन ॥


Rajyogi thakur guman singh ka smarak, Lakshnmanpura
योगीराज ठा.गुमान सिंह जी का समाधि स्थल लक्ष्मणपुरा


शिष्य परम्परा :-

आपके तीन प्रमुख शिष्य रहे - करजाली महाराज चतुर सिंह जी , किसना जी सालवी और तेजराम काठा ‌। महाराज चतुर सिंह जी मेवाड़ महाराणा के बड़े भाई सूरत सिंह जी करजाली के पुत्र थे। ठा. गुमान सिंह के सान्निध्य में रहकर योग साधना के गूढ़ रहस्यों को जाना तथा मेवाड़ी भाषा में अनेक रचनाएं की।

सालवी किशन जी सामंती सेवकों के चरवादार थे। मेवाड़ी भाषा में आध्यात्मिक रचनाएं की। 

तेजराम काठा बाठरडा के रहने वाले नगारची थे। जो जन्म से अन्धे थे। वह भी सत्संग में आकर योगाभ्यासी बन गया था।


वर्तमान राम झरोखे स्थल, लक्ष्मणपुरा   ठा.गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा (गुरू)और करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी (शिष्य) की मूर्ति
वर्तमान राम झरोखे स्थल, लक्ष्मणपुरा 
 ठा.गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा (गुरू)और करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी (शिष्य) की मूर्ति



करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी (शिष्य) और ठा.गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा (गुरू)
करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी (शिष्य) और ठा.गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा (गुरू)


अकलीम के अख्तर सारे जहाँ के आली हो। 

शाने हिन्द "गुमान" जन्नत के चिराग हो ।।

( महारावत प्रताप सिंह कानोड़ द्वारा रचित पंक्तिया - मार्च सन् 1989 )


योगिवर्य ठा. गुमानसिंह जी ने तत्कालीन काव्य-शैली में छंदबद्ध रचनाएँ की हैं जिनमें उनका आध्यात्मिक अनुभव साफ़ झलक रहा हैं आपने छोटी बड़ी कुल बीस-बाईस रचनायें की हैं जिसमे कुछ मौलिक ग्रन्थ हैं तो कुछ टिका-ग्रन्थ हैं

जो इस प्रकार हैं: 

मौलिक ग्रन्थ -

  1. मोक्ष भवन (मोक्ष प्राप्ति के सोपानो की दस खण्डीय काव्यकृति)
  2. मनीषा लक्ष चन्द्रिका (बुद्धि चरित्र वर्णन)
  3. योगांग शतक (योग के अनुभव )
  4. गुमान पदावली (पद एवं भजन आदि) 
  5. राम रतन माला (भगवान् राम की स्तुति 110 दोहों व छंद के माधयम से) 
  6. लय योग बत्तीसी ( 32 कुंडलियों में लययोग कावर्णन) 
  7. अद्वैत बावनी ( 52 दोहो कुंडलियों में अद्वैत वर्णन) 
  8. समय सार बावनी (चतुर बावनी) (52 दोहों में नीति व ज्ञान)
  9. गीता सार
  10. चित्रगुप्तेश्वर पुराण
  11. तत्व बोध
  12. दिनमान जंत्री
  13. सिध्दांत सार (योग निर्णय समाधी सार) स्त्री शिक्षा
  14. बाल 
  15. राजनीती II-टिका-ग्रन्थ एवं अनुदित ग्रन्थ
  16. योग शास्त्र पातंजल सुबोधनी भाषा टिका ("पातंजल योगसूत्र" संस्कृत ग्रन्थ पर अपनी भाषा में छंदोबद्ध टीका)
  17. पंचरत्न प्रश्नोत्तर मालिका (भवसागर को पार करने के लिए योग साधना के महत्त्व को प्रश्नोत्तर के रूप में वर्णन)
  18. जीवन मुक्तिदायिनी अमृत-रत्नसार (भगवदगीता में योग सम्बंधित श्लोको पर टीका) 
  19. श्रीराम गीता   (संस्कृतमें रचित "अध्यात्म रामायण के उत्तर खंड में वर्णित उमा-महेश्वर संवाद के अंतर्गत आये राम-लक्ष्मण-संवाद की हिंदी टीका)
  20. योगभानुप्रकाशिका (भगवदगीता भाषा टीका) 
  21. समाधि योग निर्णय (कपिल मुनि की गीता में समाविष्ट समाधी योग का सरल सुबोध विवेचन)


डॉ. राम सिंह जी द्वारा लिखित योग सिद्ध ठा.गुमान सिंह जी 
पुस्तक का विमोचन करते हुए महाराणा अरविंद सिंह जी मेवाड़


  • सन्दर्भ :-
  1. गुमान ग्रंथावली संपादक डा. देव कोठरी, प्रकाशक साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर, (वर्ष 1990)
  2. योग सिद्ध ठा. गुमान सिंह जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व, लेखक - डॉ. राम सिंह सारंगदेवोत


           साभार :-       

  • ठा.सा.भगवत सिंह जी सारंगदेवोत ठि.लक्ष्मणपुरा (गुमान ज्ञान संस्थान सचिव)
  • कुं.सुरेन्द्र सिंह जी सारंगदेवोत ठि.लक्ष्मणपुरा 
  • डॉ.राम सिंह जी सारंगदेवोत ठि.लक्ष्मणपुरा 
  • कुं.देवेन्द्र सिंह सारंगदेवोत ठि.उदय सिंह जी की भागल (सारंगदेवोत फाउंडेशन संस्थापक सदस्य) 



                                                                                                                            

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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"