सारंगदेवोत शाखा का परिचय INTRODUCTION OF SARANGDEVOT BRANCH

  सारंगदेवोत शाखा का परिचय 

KANORE, UDAIPUR

मेवाड़ के इतिहास मे "सारंगदेव-सिसोदिया" की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है उन्होंने ना केवल  युद्धो मे भाग लेकर "रण कुशलता" का परिचय दिया है बल्कि विपत्ती की घड़ीयो मे मेवाड़ के साथ निष्ठावान रहकर स्वामिभक्ती के अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत किये है अपने देश धर्म और कुलगौरव के रक्षार्थ विधर्मियो से लोहा लेकर कर्तव्य परायणता का परिचय देने वाली इस सिसोदिया शाखा का प्रार्दूभाव मेदपाट महाराणा लाखा के पौत्र एवं अज्जा के पुत्र सारंगदेव से हुआ। अज्जा जी के पुत्र सारंगदेवजी से "सारंगदेवोत" शाखा चली इनके कानोड और बाठरड़ा दो मुख्य ठिकाने रहे। मेवाड़ के प्रमुख उमरावों में कानोड़ ठिकाना प्रथम श्रेणी जागीरदार तथा बत्तीसी ठिकाने द्वितीय श्रेणी बाठेड़ा के जागीरदार हुए। मेवाड़ के विशेष भौमिया जागीरदार में भोमट क्षेत्र के मादरी तथा नैनवारा जैकड़ा सारंगदेवोत के प्रमुख ठिकाने रहें।


KANORE PALACE, BATHERA PALACE (UDAIPUR)


बड़वा देवीदान की ख्यात, श्यामलदास की वीर विनोद एवं डा. गोरिशंकर हीराचन्द ओंझा आदि एतिहासिक स्रोतों के अनुसार अज्जा जी का जन्म महाराणा लाखा की चौहान राणी प्यार कंवर (राव भीमसिंह चौहान की पुत्री) के गर्भ से हुआ। 

RAWAT AJJA JI, UDAIPUR, MEWAR

अज्जा जी के उत्तराधिकारी सारंगदेव जी हुए। महाराणा कुम्भा के समय सारंगदेव जी ने नागौर , आबू, और कुंभलगढ़ विजय अभियानों में अच्छा पराक्रम दिखाया।

 "शम्स खान नागौर रो, छो उदंडी सुल्तान।

गौवध धरणी झेलती, सनातन हुयो परेशान"।।

"मोटो राणो चित्तौड़ रो, कुम्भाजी शुभ नाम।

फ़ौज भेज नागौर पर, घोर हुयो घमसाण"।।

"सारंगदेव सीसोदियो अर लिम्बा योद्धा महान।

शम्स ख़ान ने दी पटखणी, जय शौर्य हिंदवाण"।।


 सारंगदेव जी ने महाराणा रायमल जी की सेवा में रहकर भी स्वामीभक्ति का पूर्ण परिचय दिया। महाराणा रायमल जी के पुत्र उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज जब सांगा पर तलवार से वार करता है तब सारंगदेव जी अपने प्राणों की परवाह न कर के तलवार के प्रहार को स्वयं झेलकर कुं.सांगा की रक्षा करते हैं। इस वार से सारंगदेव के सिर पर घाव लगे थे इस घटना के बाद निम्न दोहा प्रसिद्ध हुआ :-

पीथल् खग हाथा पकड वह सांगा किय वार !

सारंग झेले सीस पर कॅनवर साम ऊबार ! 



रावत सारंगदेव के बाद जोगा जी उत्तराधिकारी हुए। महाराणा सांगा ने सारंगदेव जी की महत्वपूर्ण सेवाओ का स्मरण कर उनके नाम को अमर रखने के उद्देश्य से अज्जा जी के वंशजो को सारंगदेवोत शाखा नाम से सुशोभित किया खानवा के युद्ध में रावत जोगा जी ने पराक्रम दिखलाया और वीरगति को प्राप्त हुए -

मोटो समर बयाणा रो, भीषण हो संग्राम।

सांगा जी री सेना में सगळा योद्धा महान।।

दो सहोदर लड्या समर में , हुया अमर बलिदान।

एक रावत जोगाजी दूजा पत्ता सारंगदेवोत महान।

सिसोदिया कुल रणबाकुरों, रावत सारंगदेव नाम ।

 सिंह ज्यूँ रणभूमि चढ्यो, भीषण लड्यो संग्राम ।। 


जोगाजी के बाद रावत नरबद जी उत्तराधिकारी हुए चित्तौड़गढ़ के द्वितीय साके १५३४ ई. के हरावल में देवलिया रावत बाघ सिंह जी  (प्रतापगढ़)  के साथ रावत जोगा के पुत्र रावत नरबद पाडन पोल स्थान पर वीरगति को प्राप्त करते हैं

बाघा नरबद री चली हरावल में शमशीर।

एक देवलिया रो दूजो बाठरडा रो वीर।

पाडन पोल दोनो लड्या, लड्यो जुद्ध गम्भीर ।

दुसमण धुजे ओझके, सामे खड्यो दो वीर।।


रावत नरबद जी के उत्तराधिकारी रावत नेत सिंह जी हुए। नेत सिंहजी ने महाराणा उदय सिंहजी को मेवाड़ की गद्दी पर आसीन करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई आपने 1576 ई. हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के साथ सेना में पराक्रम दिखलाया तथा वीरगति को प्राप्त हुए।

RAWAT NET SINGH JI SARANGDEVOT, UDAIPUR


रावत नेत सिंहजी के उत्तराधिकारी रावत भाण हुए इन्होने महाराणा प्रताप एवं महाराणा अमर सिंह की सेवा में रह कर मुगलों से लोहा लिया गिरधर आशिया ने सगतरासो ग्रंथ में रावत भाण व उनके पूर्वजों का यशोगान करते हुए दोहा लिखते हैं कि :-

 “सारंग जोगो सुजड़ हथ, खगवाहा खुमाण। 

सोमा नरबद नैतसी, भारी राउत भाण।।”

“कोई हलिया अमलां कोई हलिया दारूह |

भुजां लाज मेवाड री सारंगदे सारूह ॥


रावत भाण गया बिहार के निकट देव उमंगा रियासत में सारंगदेवोत सिसोदिया वंश की नींव रखते हैं। तथा उनके उत्तराधिकारी महाराजा सहस्रमल जी हुए।

रावत भाण के उत्तराधिकारी रावत जगन्नाथ भी मुगलों से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त होते हैं।

रावत जगन्नाथ के उत्तराधिकारी रावत मान सिंह जी हुए जिन्होंने महाराणा राज सिंह जी की सेवा में रहते हुए अनेक युद्धो में भाग लेकर कर्तव्य परायणता का परिचय दिया।

महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय 1711 ई. में रावत मान सिंह के पुत्र महारावत महा सिंह जी और सूरत सिंह जी ने बान्दनवाडा युद्ध में पराक्रम दिखाया तथा महा सिंह जी द्वारा मुगल सेनापति रणबाज खां को मार कर युद्ध में विजय प्राप्त कर स्वयं वीरगति को प्राप्त हुए।

मोटी मूंछों सीसोदियों, मोटो मरद महारावत । मारयो खान रणबाज ने, महासिंह मानावत ।।

सिरमोर सारंगदे, राखी लाज राण संग्रामसी । समय रजक पलटसी, पण रेसी कीरत मानसुत।।


MAHARAWAT MAHA SINGH, RAWAT SURAT SINGH BATHERA

इस युद्ध उपरांत महारावत महा सिंह जी के उत्तराधिकारी महारावत सारंगदेव द्वितीय को कानोंड़ की जागीर प्राप्त हुई तथा रावत सूरत सिंह जी को बाठेड़ा की जागीर प्राप्त हुई।

दिये मुख दाद दीवाण आलम दुनी।

पारावर तटै चढ़ क्रीत पांगी।।

अब पख चाढ़ सारंग घरे आवियौ।

जीत खल राड़ वाजाड़ जागी।।


इस प्रकार सारंगदेवोत वंश के महारावत महाराणाओ के प्रति स्वामी भक्ति और अपने पराक्रम का परिचय बार बार दिया। 

सारंगदेवोत वंश में केवल वीर ही नहीं बल्कि मेवाड़ के प्रमुख संत - योगीराज ठा.सा.गुमान सिंह जी लक्ष्मणपुरा तथा उनके शिष्य करजाली महाराज चतुर सिंह जी बावजी भी हुए। गुरु और शिष्य की अद्भुत जोड़ी योगीराज ठा. गुमानसिंह जी (लक्ष्मणपुरा) ओर शिष्य महाराज चतुरसिंह जी बावजी (करजली) -

गुप्त गुरु जाहर करया, तज कुल गरब गुमान  

धन्य चतुर चेला अस्या, धन है गुरु गुमान।।



YOGIRAJ GUMAN SINGH JI LAXMANPURA

प्रतापगढ़ रियासत में भी योगीराज ठा.सा.गुमान सिंह जी सारंगदेवोत को द्वितीय श्रेणी धनेसरी कि जागीर दी गई।

बैठक में कानोड़ महारावत का स्थान ११ वां गोगुंदा के बाद तथा भींडर से पहले आता है।

"कानोड़ आपणा करा, शरणो सारंगद्द्योत।

 ज्यों पंवार बिजोलिया, बेहु सरणा जोत" 


           साभार :-       

कुं.देवेन्द्र सिंह सारंगदेवोत ठि.उदय सिंह जी की भागल 



                                                                                                                            

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6 टिप्पणियाँ
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  2. Hokm मुझे आप एक बात बताए कि जब महारावत महा सिंह जी के पुत्र सारंगदे जी को कानोड़ की जागीर दी तो फिर पहले वाले महारावत्तओ का ठिकाना कहा पर था यह आप बताए hokm

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    1. सर्वप्रथम बाठेडा रहा है उसके बाद समय अनुसार ठिकाने बदलते रहा करते थे। सारंगदेवोत के पास भैंसरोड़गढ़, बदनौर, सादड़ी और बम्बोरा जागीर में रहे हैं। महारावत महासिंह से पहले कानोड़ जागीर मिली थी। लेकिन महारावत मान सिंह के समय लूणदा जागीर में रहा। महासिंह जी के बाद पुनः कानोड़ की जागीर प्रदान की गई तथा साथ ही प्रथम श्रेणी के ठिकाने में शामिल कर अन्य गांवों की जागीर भी दी गई।

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    2. महाराणा अमर सिंह द्वितीय के समय जागीरों को स्थाई किया गया।

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    3. कानोंड़ महारावत सारंगदेव द्वितीय द्वारा ही महाराणा अमर सिंह जी द्वितीय को यह जागीरों को स्थाई बनी रखने का सुझाव दिया गया था। जो बाद महाराणा द्वारा लागू करके तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया।

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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"