कुम्भाणी राजपूतों का इतिहास HISTORY OF KUMBHANI RAJPUTS

कुम्भाणी (कछवाहा) इतिहास 


आमेर महाराजा जूणसी जी कछवाहा के तीसरे पुत्र कुम्भाजी के वंशज कुम्भाणी (KUMBHANI) कहलाये। कुम्भाणी शाखा (खांप) कछवाहा राजवंश की पुरानी शाखाओ में से एक है इनका मुख्य ताजिमी ठिकाना बांसखो (BANSKHO) रहा था। 


HISTORY OF KUMBHANI RAJPUTS - BANSKHO FORT


कुम्भाणी कछवाहों का पीढी क्रम इस प्रकार है -


राव कुम्भाजी (कुम्भाणी खांप के पितृ पुरुष) महाराजा जुणसी देव जी महाराजा कुन्तलदेव जी महाराजा कील्हणदेव जी महाराजा राज देवजी महाराजा बीजल देवजी महाराजा मलैसी देव महाराजा पज्जवन देव महाराजा जान्हण देव महाराजा हणू देव महाराजा कांकल देव महाराजा दुल्हेराय जी (ढोलाराय) ⇐महाराजा सोढ देव जी महाराजा ईश्वरदास जी (ईशदेव जी)


आमेर महाराजा जूणसी जी AMER MAHARAJA JOONSI JI :


आमेर महाराजा कुन्तलजी की मृत्यु के पश्चात जूणसीजी कछवाहा आमेर रियासत की राजगद्दी पर विराजमान हुए। महाराजा जूणसीजी कछवाहा आमेर के 13वें शासक बने थे। अपने राज्यकाल में महाराजा जूणसी ने टोंक के उत्तर में चार कोस की दूरी पर जोला गाँव बसाया और वहाँ पर एक तालाब का निर्माण कराया। उन्होंने यह गाँव दूदावत राजपूतों को जागीर में दे दिया था, बाद में दुदावतो से दासा नरुका ने यह गाँव छीन लिया था। जूणसीजी के समय में आमेर का राज्य दक्षिण में टोंक तक फैला हुआ था। आमेर के अगले महाराजा उदय करण जी हुए और इन्ही के छोटे भाई हुए कुम्भाजी कछवाहा जिनके वंशज कुम्भाणी कहलाये।


AMER MAHARAJA JUNASI DEV JI KACHHWAHA
आमेर महाराजा श्री जुणसी देव जी 


कुम्भा जी के वंशज कुम्भाणीयों का गौरवशाली इतिहास रहा है महाराजा सवाई जयसिंह जी के मुख्य कुम्भाणी सरदारों में रावत प्रतापसिंह, चूड़सिंह बासखो, भोजराज, जैतसिंह पलासो, दीपसिंह कुम्भानी भांडारेज रहे थे।  वि. सं. १८३३ में गजसिंह कुम्भाणी को महाराजा द्वारा हमराहियों की जागीर प्राप्त हुई।


बांसखो BANSKHO (ताजिमी ठिकाना) -

कुम्भाणीयों का यह ताजीमी ठिकाना था। जयपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर आगरा रोड स्थित बांसखोह ठिकाने का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है। बांसखो के किशनसिंह कुम्भाणी (महेशदास के पुत्र) मिर्जाराजा जय सिंहजी के बड़े विश्वासपात्र सरदार थे। ये कुंवर कीरतसिंह के पास तैनात थे। वि.सं. १६५१ में ये काबुल विजय के दौरान तुर्कों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यहाँ के कुम्भाणी राजपूत सरदार जयपुर महाराजा सवाई जय सिंहजी के प्रमुख सरदारों में भी रहे। प्रतापसिंह, चूड़सिंह बासखो आदि सरदारों का इतिहास में विशेष नाम हुआ। वि. सं. १८०२ आसोज वदी ९ के दिन बून्दी युद्ध में चूडसिंह कुम्भाणी ने बड़ी वीरता दिखाई। वि.सं. १७६७ भादवा वदी १३ को बुधसिंह कुम्भाणी बासखों को जयपुर महाराज कुमार का अतालीक नियुक्त किया गया तथा घोड़ा सीरोपाव बख्शा गया।


ताजिमी ठिकाना - बांसखो 

  • बांसखो ठिकाने के प्राचीन दुर्ग का विडियो :-



ठिकाने में नईनाथ धाम है। यहां के नईनाथ महादेव मंदिर के नामकरण की अनोखी कहानी है। भोले बाबा का मंदिर करीब 350 साल पुराना बताया गया है। मंदिर में स्थित शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि वह स्वयंभू प्रकट है। कुम्भानी शासकों की इस धाम के प्रति विशेष श्रद्धा रही, यहाँ के कुम्भानी शासकों पर भगवन महादेव की कृपा रही एवं इनसे सम्बन्धित अनेक लोक कथाएं भी जनसामान्य में प्रचलित है


भांडारेज BHANDAREJ -

भांडारेज ठिकाने पर कछवाहों की कुम्भाणी उपशाखा का अधिकार रहा। कुम्भाणी आमेर के 13 वें शासक जूणसी के वंशज थे। भांडारेज के दीपसिंह कुम्भाणी सवाई जयसिंह के बड़े प्रसिद्ध सामंत और सेनानायक रहे। वि. सं. १७९२ तक दीपसिंह के भाण्डारेज रहा। वि. सं. १७९९ पौष में उम्मेदसिंह कुम्भाणी बांसखो को भाण्डारेज प्रदान किया गया था। दीपसिंह कुम्भाणी के पिता वि. सं. १७६५ आषाढ सुदी १२ को आमेर के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। दीप सिंह कुम्भाणी अश्वमेध यज्ञ का अश्व पकड़ कर युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। विक्रम सम्वत १८३३ में गजसिंह कुम्भाणी को जयपुर महाराजा द्वारा हमराहियों की जागीर प्रदान की गयी थी।


अन्य प्रमुख ठिकाने -  

कुम्भाणी राजपूतों के बांसखो (ताजीमी ठिकाने) एवं भाण्डारेज जैसे महत्वपूर्ण ठिकानो के अतिरिक्त चिकाणा, रजवास, पलाया, महेसरो, चुराडा, पलासो, दुब्बी, कंवरपुरा, खैरवाल, हमराहियों आदि अनेक ठिकाने रहे है।महाराजा सवाई जयसिंह जी ने जब अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ा, तब कुम्भाणियों ने उसे पकड़ा तथा वे लड़ते हुए काम आये थे।


जब अश्वमेध यज्ञ के अश्व को कुम्भाणी सरदारों ने पकड़ा था 

कलयुग का अश्वमेघ यज्ञ सवाई जयसिंह द्वितीय ने जयपुर रियासत में कराया था। 1734 में जयपुर महाराज सवाई जयसिंह जी के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को पकड़ने की पहले तो कोई हिम्मत नहीं कर सका, लेकिन घोड़ा चांदपोल में प्रवेश करने लगा तब कुंभाणी राजपूतों ने उसे पकड़ कर ढूंढाड़ी सेना से लड़ते हुए अनूठी कुर्बानी दे दी। सवाई जयसिंह ने यज्ञ के श्यामकर्ण घोड़े के सिर पर जय पताका बांधकर कई राज्यों में घुमाया था। जय पताका पर लिखा था कि धरती पर कोई वीर है तो वह इसे पकड़ कर दिखाए। साथ में जयपुर रियासत की शस्त्रों से सुसज्जित चतुरंगिणी सेना अश्व की निगरानी करते हुए ही चल रही थी यज्ञ का घोड़ा प्रयाग तक जाकर लौटा, तब अश्व के वापस लौटते समय ढूंढाड़ में बांसखो ठिकाने के कुंभाणी राजपूतों ने घोड़े को पकड़ने का फैसला कर लिया। सही मायनो में जयपुर की सेना शस्त्रों से सुसज्जित होकर गयी थी, तलवारे अश्व की रक्षा के लिए सैकड़ो दिवस तक म्यानों से बाहर थी और राजपूती तलवारों का बिना रक्त पिये म्यानो में वापस जाना कुम्भाणी राजपूतों को उचित नहीं लगा। कुम्भाणी राजपूतों ने अश्व को पकड़ कर चुनौती को स्वीकार कर राजपूती तलवारों को रक्त से सींचते हुए इस महायज्ञ में महान आहुति देने का दृढ निश्चय कर लिया था

जयपुर के सेनापति ने कुंभाणियों को समझाया लेकिन वे नहीं माने। बांसखो का कुंभाणी भगतसिंह अपने कुंभाणी साथियों के साथ तलवार लहराते हुए सीतारामजी का जयघोष करते हुए आया और घोड़े को पकड़ लिया। भीषण युद्ध हुआ, इस भीषण युद्ध में कुंभाणी भगतसिंह सिर कटने के बाद भी जयपुर की सेना से लड़ता रहा। वह चांदपोल के बाहर बिना सिर के लड़ते हुए दरवाजे में प्रवेश कर गया। इतिहासकार सवाईसिंह धमोरा ने लिखा है कि कुंभाणी का धड़ खंडेल हवेली के पास गिरा। चांदपोल की बुर्ज के पास कुंभाणी के गिरे मस्तक की भोमियां के रूप में आज भी पूजा होती है। घोड़े को पकड़ने के दुस्साहस से खफा महाराजा सवाई जयसिंह ने कुंभाणियों के बांसखो, भांडारेज, दुब्बी, खेरवाल आदि ठिकानों को बेदखल कर जागीरें छीन ली। उस समय अनेक कुम्भाणी राजपूत मालवा की ओर चले गये थे। उनके वंशज मालवा के गावों में वर्तमान में निवासरत है।


झुंझारजी महाराज श्री भगत सिंह कुम्भाणी, चाँदपोल दरवाजा (जयपुर) -

भगत सिंह कुम्भानी जयपुर की सेना से वीरता के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनका सर कटकर खण्डेला हवेली के पास गिरा था और धड़ चाँदपोल दरवाजे के पास जाकर शांत हुआ। यही पर झुझार के रूप में भगत सिंह कुम्भानी का देवरा बना हुआ है जहाँ उनकी पुजा आज भी होती है। झुझार जी महाराज के अनेक चमत्कारों का इतिहास गवाह है जयपुर की जनता में इनके प्रति अनन्य श्रद्धा है भक्तों का अपार जन समूह दर्शन के लिए आता है। भक्तों की मनोकामनाए पूरी होती है। मन्दिर के दर्शन करते ही कुम्भानी राजपूतों के अमर बलिदान का स्मरण हो जाता है 


भौमिया जी श्री भगत सिंह जी कुम्भाणी बांसखो


आमेर रोड पर परशुरामद्वारा के पास हुए अश्वमेघ यज्ञ के तहत घोड़े को सेना के साथ छोड़ा गया था। घोड़ा वापस आने तक यज्ञ में आहुतियां दी जाती रही। शास्त्रों के मुताबिक सतयुग में भगवान श्री राम के अश्वमेध घोड़े को उनके पुत्रो लव कुश ने पकड़ा था। द्वापर युग में युधिष्ठर के अश्वमेध घोड़े को अर्जुन के नेतृत्व में छोड़ा गया। कलयुग में महाराजा सवाई जयसिंह के अश्व को उनके ही कछवाहा वंश के योद्धाओ ने पकड़ा 

कुंभाणीयों के बलिदान पर ढूंढाड़ी में कवि ने यूं लिखा था- "बांकी जणियो भगत सिंह, बांसखो घरवाह, अश्वमेघ आपडि, असव जुड़ियों जंग जयशाह।"



वंश क्रम विडियो :-


                                                                                                                            

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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"