सल्तनत काल और इस्लामीकरण भाग-2

महाराजा मानसिंह आमेर  

MAHARAJA MAN SINGH of AMER

  भाग-2  


मुहम्मद गौरी उर्फ शहाबुद्दीन सूरी की विजय के बाद से मुगलो के आने तक 369 वर्षो का भारत का इतिहास ....

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पिछले भाग में आपने पढ़ा कि मुहम्मद शहाबुद्दीन सूरी अफ़ग़ानिस्तान के घोर प्रदेश का राजा था, उसने दिल्ली विजय से पहले वर्तमान पाकिस्तान वाले क्षेत्र को तो लगभग पूरी तरह ही कैप्चर किया था । आज के अफगानिस्तान+पाकिस्तान वाले क्षेत्र की सेना के बल पर, उसने दिल्ली पर इस्लामी झंडा फहराने की ठान ली ..... और ऐसा करने में वो सफल भी हुआ.... 

केवल दिल्ली ही नही, मुहम्मद शहाबुद्दीन सूरी दिल्ली के बाद काशी फ़तेह करता हुआ बंगाल तक पहुंच गया और केवल भीषण रक्तपात ....... तलवार की धार पर धर्मान्तरण ... अब आगे -


पंजाब विजय के पश्चात मुहम्मद शहाबुद्दीन सूरी ने गुजरात पर ही नजर गड़ाई थी । लगातार प्रयास के बाद 1194 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात को भी फतेह कर लिया, हालांकि पूरे गुजरात पर मुसलमानों का प्रभाव नही था, लेकिन हिन्दुओ की स्वतंत्रता पर , इस्लामी ग्रहण लग ही चुका था ।। और यह रोग तो आगे से आगे बढ़ते ही जाना था ।।


जैसा कि हम पिछली पोस्ट में भी बता चुके है, कि मुहम्मद गौरी उर्फ शहाबुद्दीन सूरी ने काशी बनारस बंगाल के क्षेत्रों तक विजय हासिल की इसके अलावा औऱ बचा हुआ भारत था ही कितना ... पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल उड़ीसा तक इस्लामी तंत्र की जड़े पहुंच चुकी थी।।

केवल दिल्ली सल्तनत ही नही, दिल्ली सल्तनत के नौकर तक अब भारत के सुल्तान बन बैठे थे ।। 


पूर्व में विशाल बंगाल सल्तनत बन चुकी थी, जिसके नियंत्रण में आज के भारत के कई राज्य आते थे -

1 - पूर्वी उत्तरप्रदेश 

2 - बिहार 

3 - झारखण्ड

4 - बांग्लादेश 

5 -पश्चिम बंगाल

6 - आसाम से म्यांमार तक की सीमाओं तक इन्होंने अपना आधिपत्य फैला ही लिया था। इसी बंगाल सल्तनत के बल पर ही तो शेरशाह सूरी ने राजस्थान कई क्षेत्रों तक ही नही, सिंध गजनी तक अपने झंडे गाड़ दिए थे ।।


एक और मालवा सल्तनत बन चुकी थी, जिसके अंतिम सुल्तान मियां बाजबहादुर खान ने कई बार महारानी दुर्गावती जैसी महिमामयी नारी पर आक्रमण किया था । मालवा सल्तनत के मुसलमान आक्रंताओ ने तो चित्तोड़ तक को चुनौती पेश की थी । हालांकि महाराणा कुम्भा ने मालवा को बार बार हराया, उनके बाद महाराणा सांगा ने भी मालवा को हराया लेकिन खानवा के युद्ध में लगभग सभी राजपूत रियासतों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा । फिर 1534 ई. के युद्ध के पश्चात मेवाड़ को गुजरात के पठानी सुल्तान बहादुर शाह ने लूटा और उसने चित्तोड़ पर भी कब्ज़ा कर लिया था। बस फिर तो मेवाड़ लगातार गुजरात एवं मालवा सल्तनतो के छोटे बड़े आक्रमणों से त्रस्त रहा। 


दक्षिण में " बहमनी साम्राज्य " का शासन स्थापित हो चुका था, श्रीशिवाजी तक को बहमनियों की शाखाओं से कड़ा संघर्ष करना पड़ा था।। 


एक ओर गुजरात सल्तनत का जन्म हो ही चुका था ।। गुजरात सल्तनत के शासकों का दुःसाहस तो इतना बढ़ चुका था कि उन्होंने अति प्राचीन द्वारिकाधीश मंदिर तक को मस्जिद में बदल दिया था। महमूद बेगड़ा ने इसे मस्जिद में बदला, बाद में यह मंदिर राजा मानसिंह के आने तक मस्जिद ही बना रहा ......पूरे भारत का ऐसा कोई भी क्षेत्र नही बचा था, जहां तुर्को एवं अफगानों ने इस्लामी संस्कृति को भारत के कोने कोने तक न पहुंचा दिया हो ।।


इसी समय काल में इस्लाम मे एक और शक्ति का उदय हो रहा था, जिसका नाम मुगल सल्तनत था । मुगलो ने भारत पर शासन स्थापित करने के कई प्रयास किये थे । 1527 में बाबर को एक मुख्य सफलता मिली, लेकिन वह सफलता स्थायी नही थी । शेरशाह सूरी ने मुगलों की सारी आकांशाओ पर पानी फेर दिया ..... 1530 ईस्वी में बाबर भी मर गया। 


शेरशाह सूरी बहुत ही बड़ा धूर्त था । उसने मुगलो के खतरे को भांपते हुए हिन्दुओ को भी ऊंचे ऊंचे पद देना शुरू कर दिया, जिससे कि वह एक विशाल सेनावाहिनी का निर्माण कर सके ।।  हेमचन्द्र उन्ही में से एक था, जिन्हें बाद में हेमचन्द्र विक्रमादित्य नाम से भी उपाधि मिली।  हेमचन्द्र ने राजकोष का इतना अच्छा प्रबन्ध किया था कि शेरशाह का खजाना कभी खाली ही नही हुआ ।।


शेरशाह सूरी के आक्रमण से 1540 में हुमायूँ भारत छोड़कर भाग गया । हुमायूँ के भागते ही शेरशाह सूरी बंगाल से लेकर सिंध तक का एकमात्र सम्राट बन चुका था । शेरशाह सूरी पूरे 5 वर्ष तक इस क्षेत्र का अधिपति बना रहा ।

शेरशाह सूरी ने पूरे भारत की राजनीतिक शक्तियों का मानमर्दन किया था, लेकिन भारत मे ही एक वीर ऐसा भी था, जिसके आगे शेरशाह सूरी को उल्टे पांव भागना पड़ा था। मारवाड़ में शेरशाह सूरी को एक मुट्ठी बाजरा तो मिला था, लेकिन यहां तो शेरशाह को अपने जूते तक छोड़कर भागने पड़े ।

      हुआ यूं था कि शेरशाह सूरी मारवाड़ पर हमला करने जा रहा था, आमेर के राजकुंवर गोपाल जी कछवाहा को इसकी सूचना मिली, कुछ ही कच्छवाहा सरदारों को लेकर गोपाल जी ने शेरशाह की सेना पर चाकसू के समीप ऐसा भंयकर हमला बोला कि पठान सेना के परखच्चे उड़ गए । जीत का गुमान सदैव सिरपर रखकर चलने वाले पठानो के जान के लाले पड़ गए, कभी न युद्ध से मुँह मोड़ने वाले तुर्क भी गोपाल जी के नेतृत्व में कच्छवाह सेना के पराक्रम के आगे ऐसे भाग रहे थे, जैसे शेर को देखकर हिरण आंख बंद कर बस दौड़ लगाता है । शेरशाह बड़ी बुरी तरह परास्त हुआ, ओर बिहार लौट गया, बस मुश्किल से जान ही बच पायी..... संदर्भ - ( ईस्वी संख्या 1939  में प्रकाशित हनुमान प्रसाद शर्मा जी के " जयपुर इतिहास के अंश " )

 * गोपालजी कछवाहा- महाराजा पृथ्वीराज कछवाहा के सुपुत्र थे | कछवाहा वंश की नाथावत खांप के पितामह थे अर्थात राव नाथाजी के पिताजी थे| एवं राजा मान सिंह के दादाश्री के ज्येष्ठ भ्राता थे |


कालांतर में शेरशाह की कालंजर में दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद उसका बेटा इस्लामशाह गद्दी पर बैठा। इस्लामशाह हेमू का बड़ा सम्मान करता था । लेकिन 9 वर्ष शासन करने के बाद इस्लामशाह भी मर गया ।। उसकी नाबालिग सन्तान को गद्दी पर बिठाया गया ।।


लेकिन इस्लामशाह के नाबालिक पुत्र को मारकर आदिलशाह नाम के बदमाश ने गद्दी हड़प ली । लेकिन हेमचन्द्र की शक्ति में यहां भी कोई फर्क नही पड़ा, आदिलशाह की सरकार में भी वह वजीर और सेनापति पद पर ही आसीन रहें ।


यहां पठानों का वंश पूरी तरह बिखर चुका था ।। प्रत्येक पठान अब शहंशाह बनने के सपने ही देखता था । हेमचन्द्र विक्रमादित्य ने इस मौके का फायदा उठाया, और १५५५ में कुछ समय के लिए दिल्ली के सिंहासन पर स्वयं बैठ गए ।।। लेकिन इसके 1 वर्ष बाद ही हेमू यानी कि हेमचन्द्र विक्रमादित्य पानीपत के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए ।।।

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दिल्ली पर अब हिमायूँ का नाबालिग बेटा अकबर सत्ताधिन हो चुका था । लेकिन इस समय भी पूरे भारत मे पठान ही अधिक प्रभावशाली थे । सबक सिखाने के लिए एक ही पराजय काफी होती है ... पठान अब सबक सीख चुके थे, वे सब अब एक थे । गुजरात से लेकर बंगाल तक , और उत्तर से लेकर दक्षिण तक, प्रत्येक स्थान का पठान अब एक था .... और सभी का लक्ष्य एक ही था ..... किसी भी तरह मुगलो को रोकना....


मुगलो से लड़ने में पठानों की कोई देशभक्ति नही थी, वह बस हिन्दुओ से लूटे गए माल का बंटवारा नही चाहते थे । यह डकैतों में बंटवारे की लड़ाई थी ............


खैर जो भी, मुसलमानों की इस बंदरबाट में 

हिन्दू अपने बिहार के सभी मंदिर खो चुके थे ।

अयोध्याजी में मस्जिद बन चुकी थी 

काशी मंदिरो की जगह मस्जिदों की नगरी बन चुका था ।

मथुरा में अब कुछ न बचा था,  वहां भी सब कुछ हमने खो दिया था ।

द्वारका में मस्जिद बन गयी थी,

यहां तक कि उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिर तक को आक्रान्ता असुरो ने अपवित्र किया .....

हिन्दू अपने सभी तीर्थस्थलों को लगभग खो ही चुके थे ... 


कौई अवतार ही अब हिन्दू धर्म को बचा सकता था ....

जो मालवा से लेकर दिल्ली

दिल्ली से जौनपुर, बंगाल , गुजरात , पंजाब सबको एक साथ चुनोती दे सकें .....


और वह अवतार हुआ भी

जहां हम भारत मे रहकर अपनी रक्षा के उपाय ढूंढ रहे थे

उस वीर ने ऐसा पराक्रम दिखाया कि 

अरबतुर्की के खलीफा भी हिन्दुओ के बल से भय खाने लगे .......




क्रमशः अगला भाग - 3 

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पिछला भाग - 1 देखने के लिए click करे


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'रण कर-कर रज-रज रंगे, रज-रज डंके रवि हुंद, तोय रज जेटली धर न दिये रज-रज वे रजपूत " अर्थात "रण कर-कर के जिन्होंने धरती को रक्त से रंग दिया और रण में राजपूत योद्धाओं और उनके घोड़ो के पैरों द्वारा उड़ी धूल ने रवि (सूरज) को भी ढक दिया और रण में जिसने धरती का एक रज (हिस्सा) भी दुश्मन के पास न जाने दिया वही है रजपूत।"