"रोंगटे खड़े कर देने वाली ऐतिहासिक घटना"
यह घटना 1679 ई. की है, जब दिल्ली के सिंहासन पर औरंगजेब बैठा था, उसने अपनी एक बड़ी सेना को गढ़ खंडेला के लिए रवाना किया ओर आदेश दिया, खंडेला में एक भी मंदिर नही बचना चाहिए। मुगलो की 10000 की विशाल सेना मन्दिरो को ध्वस्त करने के लिए तैयार हुई।
कारतलब खान, विरहामख़ाँ और दराब खान के नेतृत्व में उसने 10000 की विशाल सेना को शेखावाटी की ओर कूच करवा दिया। शेखावाटी आमेर रियासत का ही एक भाग था, खंडेला के राजा बहादुर सिंह शेखावत इस सेना से छापामार लड़ाई द्वारा सामना करने के लिए पहले ही पहाड़ो में चले गए थे और जनता की सुरक्षा के लिए खण्डेला खाली करवा दिया गया था।
उस समय छापोली के सुजानसिंह मेवाड़ से विवाह करके लौट रहे थे।
वो दिन था 7 मार्च 1679 ई. का। कुँवर सुजान सिंह शेखावत अपने विवाह के पश्चात मेवाड़ से दुल्हन सहित बारात लेकर वापस घर जा रहे थे, 22 वर्ष के सुजान सिंह किन्ही देव पुरूष की तरह लग रहे थे, केसरिया बाना, मुख पर क्षत्रिय आभा लिए ऐसा लग रहा था जैसे मानो भगवान शिव अपनी अर्धांगनी पार्वती सहित बारात लेकर वापस लौट रहे हों।
उन्होंने अभी तक अपनी दुल्हन का मुख भी नहीं देखा था, शाम हो चुकी थी इसलिए रात्रि विश्राम के लिए "छापोली" में पड़ाव डाल दिया गया। कुछ ही क्षणों में उन्हें गायों में लगे घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देने लगी, आवाजें स्पष्ट नहीं थीं, फिर भी वे सुनने का प्रयास कर रहे थे, मानो वो आवाजें उनसे कुछ कह रही थी ।
सुजान सिंह ने अपने लोगों से कहा, शायद ये चरवाहों की आवाज है जरा सुनो वे क्या कहना चाहते हैं।
"झिरमिर झिरमिर मेहा बरसे, मोरां छतरी छाई रे।
कुळ में है तो आव सूजाणा, फौज देवरे आई रे"।।
गुप्तचरों ने सूचना दी कि ये लोग कह रहे है कि मुगल फौज "देवरे" पर आई है।
वे चौंक पड़े । कैसी फौज, किसकी फौज, किस मंदिर पे आयी है ?
जवाब आया "हुकम ये औरंगजेब की बहुत ही विशाल सेना है, जिसका सेनापति दराब खान है, जो खंडेला के बाहर पड़ाव डाले खड़ा है। कल खंडेला स्थित ठाकुरजी के मंदिर पर मुग़लो का आक्रमण होने वाला है।
ये सुनते ही बस निर्णय हो चुका था,
एक ही पल में सब कुछ बदल गया । शादी के खुशनुमा चेहरे अचानक सख्त हो चुके थे, कोमल शरीर वज्र के समान कठोर हो चुका था । अचानक उन्हें अपनी नवविवाहिता की याद आयी, जिसका मुख भी वे नहीं देख पाए थे, जो फूलो से सजी डोली में बैठी हुई थी ।
क्या बीतेगी उसपे, जिसने अपने लाल जोड़े को भी ठीक से नहीं देखा हो । वे तरह तरह के विचारों में खोए हुए थे, तभी उनके कानों में अपनी माँ को दिए वचन गूंजने लगे, जिसमें उन्होंने अपनी माता को क्षत्रिय धर्म पर अड़िग रहते हुए मातृ भूमि एवं अपने धर्म की रक्षार्थ अंतिम रक्त की बूंद तक शत्रुओं से लड़कर क्षत्राणी के दूध की लाज रखने का वचन दिया था।
सुजान सिंह सहस ही कह उठते है कि मेरे शरीर की अंतिम रक्त की बूंद तक मैं मुगलो से लड़ूंगा लेकिन मन्दिर को आंच न आने दूंगा। उनकी पत्नी भी सारी बातों को समझ चुकी थी, डोली के तरफ उनकी नजर गयी। डोली की तरफ से एक दासी आ रही है।
दासी : - हुकम, आपने बाईसा हुकम याद फरमाया है।
सुजान सिंह डोली के पास जाते है। उनकी पत्नी मेहँदी वाले हाथों को निकालकर कुछ इशारा कर रही थी। मुख पे प्रसन्नता के भाव थे, वो एक सच्ची क्षत्राणी के कर्तव्य को निभा रही थी, मानो वो खुद तलवार लेकर दुश्मन पे टूट पड़ना चाहती थी। एक क्षत्राणी ने सहस ही इशारों में अपने पति को क्षत्रिय धर्म का स्मरण करवा दिया।
सुजान सिंह ने डोली के पास जाकर डोली को और क्षत्राणी को प्रणाम किया। कहारों और नाई को डोली सुरक्षित अपने राज्य पहुँचाने का आदेश दे दिया। देखते ही देखते बारात में 70 राजपूत योद्धा सेना में तब्दील हो जाते है। और सुजान सिंह स्वयं अपने महावीर योद्धाओं के साथ खण्डेला की ओर निकल पड़ते है।
आस पास के गाँवो से भी कछवाहा राजपूत सूजान सिंह से आ मिलते है धीरे धीरे सेना बढ़ती है और फिर 300 योद्धाओं के साथ आगे जाकर खंडेला को घेरकर उसकी चौकसी करने लगते है। आज भी लोकगीतों में गाया जाता हैं कि सुजान तो मानो ऐसा दिखा कि खुद कृष्ण उस मंदिर की चौकसी कर रहे थे, उनका मुखड़ा भी श्रीकृष्ण की ही तरह चमक रहा था।
8 मार्च 1679
रणभेरी बज उठी। दराब खान की सेना आगे बढ़ी। रणचंडी के भक्त सुजान सिंह अपने इष्टदेव को याद करते है और हर हर महादेव के जयघोष के साथ समर में कूद पड़े, 10 हजार की मुगल सेना व सुजान सिंह के 300 क्षत्रिय योद्धाओ के बीच घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया। क्षत्रिय तलवारों से मुगलिया सैनिक गाजर मूली की तरह कटे जा रहे थे। राजपूतो के अद्भुत पराक्रम को देखकर दराब खान ने पीछे हटने का मन बना लिया, लेकिन ठाकुर सुजान सिंह रुकने वाले नहीं थे । जो भी उनके सामने आ रहा था वो मारा जा रहा था। पवन वेग से मुगलो का संहार करते हुए शत्रुओं के मुंड रणचंडी को भेंट करते हुए सुजान सिंह साक्षात मृत्यु का रूप धारण करके युद्ध कर रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो खुद महाकाल ही युद्ध कर रहे हों।
जब मुगल सेना का बड़ा नुकसान हो चुका था तब युद्ध मे भावी पराजय को देख कर मुगल सेनापति ने प्रस्ताव रखा कि हम मन्दिर को नही तोड़ेंगे लेकिन बादशाह को भेंट करने के लिए मन्दिर के कोने का ही पत्थर उखाड़ कर ले जाने दो तो ये युद्ध यही रुक जाएगा। और हम हमारी सेना सहित यहाँ से चले जायेंगे।
इसका जवाब सुजान सिंह देते है कि:
ढिहियां सीस देवालो ढहसी,
ढहया देवालो.... सीस ढहे..!!
अर्थात- शीश ढहने पर ही मंदिर टूटेंगे, अन्यथा नही, ओर अगर मंदिर टूट गया, तो मेरा सिर भी नही रहेगा..!!
मेरे एक भी योद्धा के जीवित रहते इस मंदिर का एक पत्थर लेना तो दूर की बात है इस मंदिर पर किसी मलेच्छ की छाया भी नही पड़ने देंगे।
सुजान सिंह की इस प्रचंड हुंकार ने मुगलो को समझा दिया था कि युद्ध रुकने वाला नही था।
धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रिय अड़िग थे। युद्ध में मौका पाकर एक मुगल सेनिको के समूह ने पीछे से सुजान सिंह पर हमला कर दिया लेकिन सुजान सिंह ज्यों के त्यों युद्ध भूमि में डटे रहते है। इस घनघोर युद्ध के बीच कुछ मुगल सैनिकों की नजर जब सुजान सिंह पे पड़ती है,
ये क्या ? इस शरीर पर शीश तो है ही नहीं...
ये देख मुगल सेना में अफरा तफरी मच जाती है। और फिर युद्ध में झुंझार सुजान सिंह के प्रहारो से मुगल सेना कांप उठती है। कुछ ही समय मे सैकड़ो मुगलो के शव धरा पर पड़े होते है।
अब सुजान सिंह के खड्ग प्रहार से दराब खान भी मारा जा चुका था, मुगल सेना भय से भाग रही होती है, लेकिन सुजान सिंह घोड़े पे सवार बिना सिर के ही मुगलों का संहार कर आगे बढ़ते जा रहे होते है । उस युद्धभूमि में मृत्यु का ऐसा तांडव हुआ, जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की सैकड़ो की सेना तो अकेले सुजान सिंह के हाथों मारी जा चुकी थी । अब तो मुगलो की बची खुची सेना बुरी हालत में भाग रही होती है।
दूसरी ओर क्षत्राणी के आदेश पर डोली को खण्डेला की सीमा पर पर्वत की तलहटी में ही रोक दिया जाता है। क्योंकि एक सती का सतीत्व कह रहा था कि "वो मुझसे मिलने यही आएंगे"। सतीत्व के सामने स्वयं देवता भी झुक जाते हैं। तब दूर से आती घोड़े की टापों ने सभी को बता दिया कि झुंझार सुजान सिंह आ रहे है खण्डेला की पहाड़ियों के पास ही झुंझार सुजान सिंह का धड़ लिए घोड़ा क्षत्राणी की ओर बढ़ रहा था।
पीछे पीछे सेकड़ो ग्रामवासी दर्शनार्थ दौड़े चले आ रहे थे। अपनी नव विवाहिता के पास जब उनका धड़ पहुँचा तो क्षत्राणी का स्वर था कि 'आ गए आप, आपने मेरे धर्म और सम्मान की लाज रखी है'। आपको पति रूप में पाना मेरा सौभाग्य है।
इस युद्ध में 300 कछवाहा राजपूतों ने अपना बलिदान दिया तब जाकर धर्म की रक्षा का रथ आगे बढ़ सका।
इतिहासकारो ने इस युद्ध को स्वर्णाक्षरों से सहेजा, लोकगीतों , भजनों में भी इस घटना का जीवंत स्मरण हो उठता है। लेकिन वर्तमान सरकारों की उपेक्षा के कारण आज ऐसी बलिदान की अमर गाथाएं नयी पीढ़ी से दूर होती जा रही है। धर्म की रक्षार्थ उन वीरों को याद दिलाते उनके देव स्थान एवं स्मारक आज भी अमर बलिदान व त्याग की गाथा के साक्षी अड़िग खड़े है।
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